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Wednesday, May 6, 2015

जरा अपनी पॉलटिक्स तो बताओ राहुल!

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राहुल गांधी सिर्फ एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक पूरी बीट हैं जिसे एक रिपोर्टर को उसी तरह कवर करना चाहिए जैसे वो अपनी कई अन्य बीट कवर करते हैं। 2005 में स्टार न्यूज के उस वक्त के न्यूज डायरेक्टर उदय शंकर ने यह बात राहुल गांधी पर किताब लिखने वाले पत्रकार जतिन गांधी से कही थी। इसका जिक्र जतिन गांधी और वीनू संधू की किताब राहुलमें है। इस बात में दम भी था क्योंकि आगे चल कर ऐसा हुआ भी कि कई ख़बरिया चैनलों में राहुल के लिए अलग से संवाददाता रखे गए जिसका काम राहुल की गतिविधियों पर नज़र रखना था और राहुल से जुड़ी हर छोटी बड़ी बात खबर होती थी। 2004 में राहुल गांधी भारतीय राजनीति में जिस जोशो-खरोश के साथ लांच हुए थे और आते ही यूथ ब्रिगेड पर काम करना शुरू कर दिया था कि उस वक्त लगता था वाकई आने वाले समय के नेता वही हैं। आज भी कई बार यही भ्रम हो जाता है। ख़ासतौर से तब जब राहुल संसद में गरजते हैं। लेकिन, राजनीति दो दिन की कौड़ी तो होती नहीं लिहाजा उनका तिलिस्म जल्दी ही खत्म हो जाता है।
पूरे 11 साल बाद कांग्रेस के इस युवराज को देश में विपक्ष की भूमिका मिली है। लेकिन 10 महीने बाद वो लोहा लेते दिखे। संसद में गरजे तो एक बार फिर वही तिलस्म फैला गए। फेसबुक और ट्वीटर पर उनके प्रशंसकों ने फिर से जयकारे लगाए। ये बात दीगर है कि मोदी सरकार पर किसान विरोधी होने का विवाद गहरा रहा है। राहुल ने इसे तुल दे दिया। कुल मिलाकर एक सश्क्त विपक्ष का रौद्र रूप मोदी सरकार ने भी पहली बार देखा। किसानों को लेकर लोकसभा में दिया गया उनका भाषण तमाम टीवी चैनलों की सुर्खियां बनीं। उनकी ये गर्मजोशी अगले कई दिन जारी रही। जिसमें महाराष्ट्र से लेकर पंजाब की लोकल ट्रेन यात्रा भी शामिल है। पंजाब के खारा मंडी पहुंच कर मोदी को जिस तरह ललकारा गया उसे किसी भी तरह से कम नहीं आंका जा सकता। लेकिन सबके मन में सवाल यही कौंधता है कि ये तगड़ा विपक्ष आया कितने दिन के लिए है। आखिर कितने दिन राहुल की यह सक्रियता बनी रहेगी।
दरअसल, एक समय पर राहुल जितने सक्रिय दिखते हैं दूसरे समय पर उतने ही हल्के और ढुलमुल। मुद्दे को जोरदार तरीके से उछालना और फिर खुद ही विलुप्त हो जाने की आदत ने राहुल को राजनीति ही नहीं देश में भी हल्का बनाया। ऐसा एक नहीं कई बार हुआ है कि राहुल गांधी अचानक से एक दो महीनों के लिए जनता के हीरो बन जाते हैं और फिर हीरो तरह ही गायब भी हो जाते हैं। वास्तविकता में उनकी तलाश लोगों को महंगी पड़ती है।
दलित के घर बैठकर खाना खाने से लेकर किसी गरीब बच्चे को गोद में उठा लेना या फिर एकदम से सुरक्षा घेरा तोड़ते हुए किसी आम आदमी से जा मिलने की चेष्टा राहुल गांधी ही कर सकते हैं। राहुल की इस राजनीति को समझ पाना बहुत कठिन है। वरना, संसद में राहुल बाबा जिस तरह के तेवर में दिखे कि एक वक्त में लगा कि यही तो है वो जिसका देश को इंतजार था। कई लोगों ने उनके इस हौसले को  इस मुहावरे से तौला कि देर आए दुरुस्त आए। मार्च 2004 में राहुल गांधी अमेठी से पहली बार चुनाव लड़े, जीते लेकिन किसी असरदार भूमिका में नहीं दिखे। राहुल को बड़ी जिम्मेदारी और कमान देने की बात को सोनिया गांधी भी टालती रहीं। देश की मीडिया बार-बार यह सवाल करती रही कि आखिर कब राहुल को कांग्रेस की कमान दी जाएगी। लंबी चुप्पी के बाद 2007 में उन्हें पार्टी महासचिव बनाया गया। 2008 में भारतीय युवा कांग्रेस की कमान मिली और 2013 में आधिकारिक तौर पर पार्टी के उपाध्यक्ष बने।
एक समय के बाद कांग्रेस ने उन्हें खुल कर राजनीति करने का मौका दिया लेकिन उनकी राजनीति कभी देश को समझ नहीं आई। 2004 से 2014 तक लगातार सत्ता में रहने के बावजूद उन्होंने कोई मंत्रालय नहीं संभाला। इसके बाद राजनीतिक सक्रियता उनकी यह रही कि 2014 के चुनाव के ठीक बाद वो गायब हो गए। राहुल की चीर-परिचित राजनीति। ऐसे में सवाल तो ये उठता ही है कि आखिर राहुल किस किस्म की राजनीति करना चाहते हैं। उनकी राजनीति कुछ इस तरह की होती है कि दो महीने में जितना करना है कर लो फिर अगले तीन चार महीने दर्शन ही नहीं देना है। सवाल गंभीर है कि क्या इसी राहुल गांधी पर देश की पीढ़ी भरोसा करेगी। क्या यही कांग्रेस का चेहरा है जो देश का सबसे बड़ा विपक्ष है। आखिर राहुल जो वादे और दावे करते हैं उसका फालोअप कौन करेगा। क्या उसका कभी फालोअप हुआ भी है। हर अज्ञात वास के बाद जब राहुल लौटते हैं तो देश में मुद्दे बदल चुके होते हैं और राजनीति की ये नब्ज होती है कि वो तत्कालिक मुद्दे पर जोरदार नजर आती है। राहुल से ये सवाल कौन पूछेगा कि आखिर उनकी ये क्या पॉलटिक्स है? सत्ता पक्ष को तो एक कमजोर या नाम मात्र का विपक्ष मिल जाए तो पांच का दस साल बड़े आराम से काट ले। लेकिन इस देश की जनता का क्या होगा और फिर जिस तरह की राजनीति राहुल कर रहे हैं उससे उनका ही क्या हो जाएगा!

Tuesday, November 11, 2014

किस्स” की क्रांति 

अर्चना राजहंस मधुकर


बड़ी बड़ी क्रांति का उदय दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में होता रहा है। साथ ही क्रांति को गोद लेने की भी परंपरा यहां खूब रही है। वामपंथ का गढ़ रही इस धरती ने बहुत से प्रगतिशील विचार इस देश को दिए हैं जिसपर चढ़कर भारत, इंडिया बना। अभी-अभी जिस क्रांति को इस विश्वविद्यालय के छात्रों ने गोद लिया है वह है लिप लॉक क्रांति। हिंदी में लिप लॉक का भावार्थ कुछ इस तरह से निकाला जा सकता है कि एक व्यक्ति जब किसी दूसरे व्यक्ति के होंठो को अपने होठों से ताला जड़ित कर दे तो वह हुआ लिप लॉक यानी किस ऑफ लव। इसके पीछे तुर्रा ये है कि इससे महिलाएं अपनी आजादी का उदघोष कर पाएंगी।

बैंगलोर से शुरू हए इस अजीबोगरीब (कमसकम भारत जैसे देश के लिए तो ये अजीबोगरीब ही है क्योंकि यहां लिपलॉक जानते भी कितने लोग हैं ये अलग बात है कि बहुपयोगी हैं।) हां, तो क्रांतिकारी छात्रों ने आह्वान किया है कि वो इसे आंदोलन बना देंगे। इन छात्रों को बाकी विश्विद्यालयों मसलन जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अंबेडकर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय आदी के छात्रों का समर्थन भी प्राप्त है।
भाई एवं बहन लोगों ने शनिवार को जेएनयू के गंगा ढाबा में जमकर प्रदर्शन करने के बाद दिल्ली के झंडेवाला स्थित आरएसएस के दफ्तर के सामने भी प्रदर्शन किया।

इन छात्रों का मानना है कि आरएसएस ने बैंगलूरू में होने वाले इनके कार्यक्रम को खारिज कर दिया जोकि नाजायज था तुर्रा ये कि एक प्रगतिशील देश जो कि भारत है, उस देश में किस ऑफ लव जैसे आयोजनों पर रोक लगाना गलत है। इस दल का तर्क ये है कि महिलाएं सिर्फ घर की वस्तु ना बनी रहें। यहां पर संघ प्रमुख मोहन भागवत की उस पंक्ति को याद कर लेना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि  महिलाओं को कुशल गृहणि होना चाहिए। चलिए मान लिया जाए कि महिलाओं को कुशल गृहणि नहीं होना चाहिए तो क्या उन्हें किस्स ऑफ लव होना चाहिए।

क्या यही एक दरवाजा है जो स्त्रियों को आजादी का रास्ता दिखा सकता है और नाहक प्रेम को लिप लॉक से जोड़कर देखा जा सकता है।

वामपंथी छात्र संगठन और छात्र इस बात से नाराज हैं कि किस्स ऑफ लव कार्यक्रम को क्योंकर रुकवा दिया गया। इस आयोजन को रोकवाने की हिमाकत करने वालों को अब ये छात्र सबक सिखाने पर तुले हैं।इसके बाद से कमसकम दिल्ली में जो दृश्य उमड़ा है कि पूछिये मत।

जो लोग लिखकर या मौखिक विरोध कर रहे हैं उन्हें रूढिवादी करार दिया जा रहा है। लेकिन सवाल ये उठता है कि किस ऑफ लव का विरोध करने वाले अगर रूढिवादी हैं तो फिर इसका समर्थन करने वाले खुद ब खुद प्रगतिशील हो गए! लेकिन पश्चिम से आए इस तरह के हौव्वे का फालोवर होना अगर प्रेगतिशील होना है और इससे अगर रत्ती भर भी औरत की आजादी जुड़ी है तो फिर इन्हीं लोगों से ये पूछा जाना चाहिए कि सेक्स से जुड़े बाकी मुद्दों पर ये लोग किस कोने में जाकर सो जाते हैं। क्या ऐसे समुदाय के लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है कि इस देश में आज भी मासिक धर्म और मेनोपोज जैसी बातों पर चर्चा तक नहीं होती जिसका सीधा संबंध हमारे रिश्तों से है और इसे खामखा सेक्स और स्त्री के अंग से जोड़कर देखा जाता रहा है।

जिस देश में सैनिटरी नैपकीन तक को खरीदने में शर्म को चस्पा कर दिया गया है उस देश में किस्स ऑफ लव को लेकर आंदोलन हो रहा है। यह देखकर थोड़ी हैरानी भी होती ही और हास्य भी उभरता है कि यह किस किस्म का मूठ है जो प्रगतिशीलता का चोला पहनने वाले लोग समझ नहीं पाते। कोई इस बात की वकालत क्यों नहीं करता कि गांवों कस्बों में महिला के लिए शौचालय होना कितना आवश्यक है।
भारत में एक अजीब किस्म की हिप्पोक्रेशी देखी जाती है। सैनिटरी नैपकीन से लेकर मांस मच्छी तक काली पन्नी में बेची जाती है जिसकी वजह ये होती है कि सैनिटरी नैपकिन निहायत निजी अंग और शारीरिक इस्तेमाल के लिए होती है और मांस मच्छी में जल्दी नजर लगने की एक पुरानी कहावत है।कहते हैं अगर मांस मच्छी खरीदते वक्त किसी ने उसपर नजर गड़ा दी तो बाद में खाने वाले के पेट में दर्द हो जाता है। यह बात इतनी ताकिद से पूरे देश में रटाई गई है कि चाहे आप बिहार में हों कि उत्तरप्रदेश में मध्यप्रदेश में हों कि दिल्ली में आपको ये वस्तुएं काली पन्नी में ही दी जाएंगी।

सैनिटरी नैपकिन तो जब आप खरीद रहे होते हैं तो जाने कितनी सकपकाहट होती है तिसपर दुकानदार के सिरपर तो बोझ ही गिर जाता है। आप ना तो उसके मूल्य पर ठीक से बात कर सकते हैं ना ही क्वालिटी पर आप बोलेंगे और वो झप से काली पन्नी या ग्रे पैकेट में आपको पकड़ा देगा।
ऐसे ही देश में लिप लॉक करते युवा सड़कों पर घूम रहे हैं। यह संदेश किसी एक खास राजनीतिक दल को पहुंचानी है या आधी आबादी को यह समझ से परे है। प्रेम और चुम्बन गलत नहीं है लेकिन इसके जरिए जिस स्त्री आजादी की बात की जा रही है वह निस्संदेह गलत है। एक भ्रामकता है ठीक उसी तरह से जब किसी पुरुष को यह कहा जाता है औरत की तरह चूड़ियां पहन कर घर में बैठो।

औरत और मर्द का फर्क अलग है वहां चूड़ी का कोई अर्थ नहीं बैठता क्योंकि चूड़ी महज शृंगार का विषय है ताकत और कमजोरी का नहीं।
हमारे हां आज भी मासिक धर्म जैसे विषय पर कोई चर्चा नहीं होती। दफ्तरों में महिलाओं के लिए इस विषय पर किसी छुट्टी का इंतजामम नहीं है जबकि, हमारे जीवन में इसका क्या योगदान है ये सब लोग जानते हैं। हम आप सब इससे जुड़े हैं लेकिन बा खुदा कभी जो घर के किसी पुरुष के समक्ष यह बात कोई कह दे। अंगोछा वगैरह तो आज भी खुले में सुखाने के लिए ना जाने कितना संघर्ष इस देश में महिलाओं को करना पड़ता है।
वस्तुत: इस देश में दो देश बसते हैं एक भारत और एक इंडिया और इस किस ऑफ लव जैसे समारोह जिसे आंदोलन बनाने की धमकी दी जा रही है उसे इंडिया का हिस्सा मान लेना चाहिए नहीं तो तथाकथित प्रगतिशील (इलिट) लोग जीने नहीं देंगे।


वैसे आज जब बाजारवाद इतना हावी है तो ये नहीं मानना चाहिए कि तमाम राजनीतिक दलों के उपर जो बाजार है ये उसका खेल भी हो सकता है क्योंकि बाजार के हाथ की कठपुतली तो औरत ही है। 

Friday, November 9, 2012

अजहर एक क्रिकेटर, एक नेता



पूर्व भारतीय कप्तान और कलाई से बॉल को ट्विस्ट कर गेंदबाजों की हवाईयां उड़ाने वाले मोहम्मद अजहरुद्दीन ने एक तरह से रिटायरमेंट की घोषणा कर दी. बेशक गुरुवार के पहले वो अगर ऐसा कहते भी कि अब वो क्रिकेट नहीं खेलना चाहते तो इसका कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वो भारतीय क्रिकेट बोर्ड (बीसीसीआई) की तरफ ही आजीवन प्रतिबंधित कर दिए गए थे. लेकिन, गुरुवार को जैसे सारा कलंक धुल गया. एक खिलाड़ी फिर से सिर उठा कर चल सकता था. 12 वर्षों तक अपमान का दंश झेलना कम नहीं होता है लेकिन फिर भी अजहरुद्दीन ने इस पर कोई टिप्पणी करने से मना कर दिया. उन्होंने हैंसी क्रोनिए को भी एक तरह से माफ कर दिया. बकौल अजहरुद्दीन "अब वो रहे नहीं तो उसपर किसी तरह की बातचीत ठीक नहीं रहेगी."

अजहर खुश थे जाहिर है एक दशक बाद ही सही लेकिन एक खिलाड़ी के लिए मैच फिक्सिंग का आरोप बहुत बड़ा होता है. ऐसा आरोप ना सिर्फ खिलाड़ी होने पर सवाल करता है वरण देश की इज्जत भी मिट्टी में मिलाने जैसा होता है. उसपर, बात क्रिकेट की हो तो ये बात सौ फीसद लागू होती है.लेकिन अजहर ने बड़े सधे हुए राजनीतिज्ञ की तरह पत्रकारों से बात की. उन्हें अपना बयान दिया. "मैंने धैर्य रखा."

आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश के बाद अब बीसीसीआई को अपना फैसला सुनाना है और आईसीसी को भी क्योंकि इससे पहले भी 2006 में जब बीसीसीआई ने अजहर से बैन हटाने की सोची थी तो आईसीसी ही आड़े आई थी इस सवाल के साथ कि इससे गलत ट्रेंड की शुरुआत होगी और अजहर से बैन सिर्फ आईसीसी हटा सकती है.

हालांकि, ये मामला कोर्ट का है और कोर्ट ने अजहर पर लगे प्रतिबंध को गलत करार दे दिया है इसके बाद देखने वाली बात ये होगी कि क्रिकेट की दोनों

संस्थाएं क्या फैसला लेती है. हालांकि इससे पहले 2008 में पाकिस्तान कोर्ट ने सलीम मलिक पर लगे प्रतिबंध को हटा दिया है.

वैसे, अजहर इस मामले में जरा बैचेन नहीं दिखे ये कहें कि बड़े आश्वस्त दिखे. उन्हें ना ये चिंता थी कि बीसीसीआई क्या फैसला करेगी या आईसीसी क्या कहेगी. दुनिया और अपने प्रशंसकों की नजर में उन्हें बेगुनाह साबित होना विशेष लग रहा था. उन्होंने कहा भी"मेरे फैन्स खुश हैं, मैं खुश हूं."

एक दशक में अजहरुद्दीन एक खिलाड़ी से एक नेता बन चुके हैं ये उनकी बातों से साफ जाहिर हो रहा था यहां तक कि ये भी कि वो किसी भी तरह का बयान देकर किसी खास संस्था को नाराज नहीं करना चाहते थे. उन्होंने एक तरह से माफ करने की जबरदस्त कला सीख ली है. अजहर का ये रूप यानी एक सधे हुए राजनेता का रूप काफी दिलचस्प था. हालांकि पिच पर भी अजहर का तकरीबन यही रूप हमेशा देखने को मिलता था. अजहर कभी बॉल को देखकर हड़बड़ाते नहीं थे. शायद क्रीज पर अपनी जगह बने रहकर गेंद को बाउंड्री पार भेजने वाले वो अकेले खिलाड़ी हैं.

यकीन नहीं होता कि एक क्रिकेटर सिर्फ चार साल में इतना सधा नेता बन चुका है कि अब मीडिया के उलजुलूल सवालों का जवाब भी बहुत चुटीले अंदाज में दे सकते हैं. 2009 की उनकी कई रैलियां याद कीजिए उनके बयान याद कीजिए सहमा हुआ एक नेता दिखाई देता है. हालांकि मुरादाबाद की बड़ी आबादी के लिए वो 2009 में भी भगवान थे आज भी हैं. उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र में काम भी किया है ये अलग बात है कि उसके लिए गोल्ड मेडल नहीं दिया जा सकता लेकिन अन्य सांसदों की तुलना में सराहना लाजिमी है.

अजहर, मेरे पुराने दफ्तर में बतौर गेस्ट आते थे, तब उन्हें देखकर उनका ये रूप पहली बार देखने को मिला था कि वो किसी भी मसले पर बहुत हड़बड़ी में कुछ नहीं कहते. धीरे-धीरे बोलते हैं और जो सवाल हो अगर उसका ठीक-ठीक जवाब उनके पास ना हो तो उसमें अपनी महारत दिखाने की कभी कोशिश नहीं करते थे.

लेकिन गुरुवार की प्रेस वार्ता अलग थी. मीडिया की तरफ से जब उनसे पूछा गया कि अजहर आप आईपीएल खेलेंगे तो वो कहते हैं, "आपको लगता है मैं खेल सकता हूं?" दरअसल, कई बार मीडिया बहुत हड़बड़ी में रहती है. ऐसा इसलिए क्योंकि इसके पहले अजहर कई बार ये कह चुके थे कि वो अब क्रिकेट नहीं खेलेंगे और ना ही उनकी कोई इच्छा है खेलने की. ऐसे में ये सवाल कि आप आईपीएल खेलेंगे या नहीं, अतिरेय था. ऐसा नहीं होता कि हमारे सवाल चाहे वो कुछ भी हों हमेशा सही ही होते हैं, कोई जरूरी नहीं है ' पब्लिक फिगर' मीडिया के तमाम सवालों के लिए जवाबदेह हो. मीडिया को इस भ्रम से बाहर निकलना होगा कि वो कुछ भी पूछ सकती है क्योंकि मीडिया है.



Saturday, August 4, 2012

भारत का राष्ट्रीय खेल क्या?



लंदन में ओलंपिक चल रहा है। आशा निराशा के पल हैं। कुछ तीखी टिप्पणियां। हर्ष से भर देने वाले हैरत अंगेजी जीत भी साथ में है। अलग-अलग न्यूज़ चैनल, अलग अलग अखबार और उत्साह के  अलग अलग रंग। हर जगह आह्लाद। लेकिन, इस बाजारवाद में सच कहीं गुम है या फिर बाजारवाद ही इकलौता सच। जो इच्छा हो बोलिए, उससे भी ना बने तो चिल्लाइये, कमसे कम इतनी बार कि लोगों को गीदड़ की हूंक पर भरोसा हो जाए।  कहने बोलने के लिए किसने रोका है? लोकतंत्र है और इस लोकतंत्र की एक और अजीबोगरीब आदत है। यहां खुशी के समय दुखद सवाल करने पर सख्त पाबंदी है और दुख के समय कोई सुखद सवाल ना पूछे तो बेहतर। लेकिन इस परंपरा को थोड़ी देर के लिए तोड़ने में कोई हर्ज भी नहीं है। माहोल खुशी का है और सवाल थोड़ा परेशान करने वाला।  
इस पल में, पूरा देश ये चाहता है कि हम ओलंपिक से बेशक कुछ लाएं या ना लाएं लेकिन हॉकी में एक पदक जरूर लाएं। ये सिर्फ इसलिए क्योंकि कथित तौर पर हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। देश का खेल है। देश यानी आन, बान और शान। लेकिन, हॉकी को इस देश में दोयम दर्जा प्राप्त है इसे निसंकोच स्वीकार करना चाहिए ये मानते हुए कि हॉकी कोई कुकुरमुत्ते की खेती नहीं है जो बरसात गिरते ही अचानक लहलहा उठेंगे। ओलंपिक के ठीक पास आते ही हम अचानक हॉकी-हॉकी चिल्लाने लगते हैं?  क्योंकि राष्ट्रीय खेल हॉकी है और इसमें पदक तो बनता ही है। ये अलग बात है कि हॉकी खिलाड़ियों के साथ लगातार सौतेला व्यवहार होता रहा है। वैसे क्रिकेट छोड़ हर खेल के साथ यही बात लागू होती है। लेकिन, फिर भी हॉकी राष्ट्रीय खेल है और इससे हमें सबसे ज्यादा उम्मीदें रहती हैं। हां बेशक हम अपने खिलाड़ियों को बरसों टर्फ की जगह खुले मैदान में खेलाते रहें। जब दुनिया (ओलंपिक समेत) पॉली ग्रास पर खेलती है तो हम उन्हें टर्फ देते हैं। बहरहाल, सवाल कई हैं इसलिए, फिलहाल इस पचड़े में नहीं पड़ना। इस विषय पर बहुत बहस हो चुकी है। सवाल तो इससे भी बड़ा है। वो ये कि किसने कहा कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल हैं? कौन कहता है हॉकी राष्ट्रीय खेल है?
ये सब कहां दर्ज है। कंपीटिशन बुक्स में या फिर पहली, दूसरी, तीसरी कक्षा की सामान्य ज्ञान किताबों में।
एश्वर्या पराशर नाम की बच्ची के मन में जब ये जानने की  जिज्ञासा हुई कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है इसकी जानकारी कहां दर्ज है। तो उसने एक आरटीआई दाखिल कर प्रधानमंत्री कार्यालय से ये जानकारी मांगी। सातवीं में पढ़ने वाली इस बच्ची को संबंधित मंत्रालय (खेल एवं युवा मामले) के अतिरिक्त सचिव शिव प्रताप सिंह ने जवाब भेजा है कि मंत्रालय ने किसी भी खेल को राष्ट्रीय खेल नहीं घोषित किया है। जवाब संक्षिप्त और सरल है। इसे समझने में कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन जो हम वर्षों से पढ़ते आ रहे हैं रटते आ रहे हैं उसका क्या। क्या हम अपनी मां से नाराज हो जाएं कि मां तुमने कहां पढ़कर हमें ये बताया कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। या फिर अपने क्लास टीचर पर नाराजगी दिखाएं। उस किताब को फाड़ कर फेंक दे जहां ये लिखा है किहॉकी इस आवर नैशनल गेम। और हम अपने बच्चों को क्या पढ़ाएं कि हमारे देश का  कोई राष्ट्रीय खेल नहीं है। फिर अगर उसने पूछा क्यों नहीं है तो जवाब के लिए मंत्रालय भेज दें? 
वैसे, एश्वर्या के कई और सवाल हैं जिसका जवाब उसे नहीं मिल पाया। मसलन महात्मा गांधी कब राष्ट्रपिता बने? राष्ट्रीय पशु कौन है। वगैरह वगैरह।



Tuesday, July 31, 2012

मैं ‘अन्ना’ माफी मांगता हूं!

तुमको बुलाया यहां
कड़ी धूप में
तुमको इकठ्ठा किया 
भारी बरसात में
तुमसे नारे लगवाए
तुम्हारा गला रुंध गया होगा
मुझे माफ करना
माफ करना मैंने तुम्हें सफेदपोश का सच बताया
गरीबी और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोला
मुझे माफ करना
तुमसे तुम्हारे नेता के खिलाफ वंदे मातरम का नारा लगवाया
तुम्हें आंदोलित किया
मुझे माफ करना
अपनी बूढ़ी हड्डियों पर तरस नहीं खाया
मैंने बार-बार अंतड़ियों को सुखाया
73 साल की उम्र में भी रीढ़ की हड्डी सीधी रखी
ये सब मेरी गलतियां हैं
और मैं अपनी गलतियों के लिए माफी मांगता हूं
मैंने गहरी नींद में सो रहे मासूम देश वासियों को जगाया
अब! पश्चाताप भी कैसे करूं
सो माफी मांगता हूं
मुझे माफ करना
मैंने खुद को क्रांतिकारी समझने की भूल की
उसके लिए मुझे माफ कर दो
मैंने गांधी बनने की गलती की
हश्र की परवाह किए बगैर
मैं, कसम खाता हूं आज से मौन ही रहूंगा
मौत का इंतजार करता हुआ किसी अन्य बूढ़े की तरह
मैं किसन बापट बाबूराव हजारे
देश को आजादी दिलाने निकला
इसका खेद है मुझे
मैं आज शीष झुकाता हूं
ठहुने जमींदोज करता हूं
बूढ़ी ठिठुरती हाथों ने बार बार तिरंगे को उपर उठाए रखने की जिद क्यों की
मैं माफी मांगता हूं
बुढ़ापे में कम बोलना चाहिए
मैंने गला फाड़ा
मुझे माफ कर देना
मेरे सख्त वक्तव्यों, दिक्कतों,संशयों
के लिए मुझे माफ कर देना
मुझे मिटा देना अगर कोई भूलवश इतिहास में दर्ज कर जाए
मेरे इस पागलपन को....
ब्लेड से खुरच-खुरच कर नोच देना उस पन्ने को
जिसपर मेरी अड़ंगेबाजी दर्ज की जाए
वरना, फिर से कोई पगलाएगा
और पूरा देश वंदे मातरम, वंदे मातरम चिल्लाएगा

Friday, April 13, 2012

मैं सच बोलूंगी और हार जाऊंगी
वो झूठ बोलेगा और लाजबाब हो जाएगा


पाकिस्तानी युवती परवीन की ये दो लाइने काफी कुछ कहती है। एक स्त्री के सच को बखूबी बयां करती है। लेकिन ऐसा बहुत कम होता है कि वक्त रहते ऐसी पंक्तियों के मायने समझा जाए।


मैं सच बोलूंगी तो हार जाऊंगी
वो झूठ बोलेगा और लाजबाब हो जाएगा-

एक पाकिस्तानी युवती जिसका नाम परवीन था कि ये दो पंक्तियां वाकई लाजबाब है।